इस वजह से त्रिपुरारी कहलाते हैं भगवान शिव

भगवान शिव ने समय-समय पर अनेकों रूप धारण किये हैं।  भगवान शिव के इन्ही अनेकों रूप से जुड़ी कई कहानियां भी आपने ज़रूर ही सुनी होगी।  ऐसे में हम आज आपको बताने जा रहे हैं भगवान शिव के एक नाम त्रिपुरारी से जुड़ी एक कहानी जिसे सुनकर आपको भी पता चल जायेगा कि आखिर क्यों और कैसे भगवान शिव का नाम त्रिपुरारी पड़ गया। ग्रंथों में कार्तिक मास की पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार, इसी दिन भगवान शिव ने तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली के त्रिपुरों का सर्वनाश किया था। बताया जाता है कि इन त्रिपुरों का सर्वनाश करने के कारण ही भगवान शिव का नाम त्रिपुरारी पड़ा। 

जानिए भगवान शिव ने कैसे किया त्रिपुरों का सर्वनाश 

शिव पुराण में इस कहानी का ज़िक्र है. एक बार की बात है, दैत्य तारकासुर के तीन बेटे थे तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली। एक समय में तारकासुर राक्षस का उत्पात काफी बढ़ गया था जिससे ख़त्म करने के लिए भगवान शिव के बेटे कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया। अपने पिता के वध के बारे में जानकर तारकासुर के बेटों को काफी बुरा लगा और तभी उन्होंने भगवान से बदला लेने की ठान ली।  इसके लिए उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने का फैसला लिया और घोर तपस्या शुरू कर दी। इनकी तपस्या से खुश होकर ब्रह्मा जी उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्होंने राक्षस पुत्रों से कोई वरदान मांगने को कहा।  

राक्षस पुत्रों ने भगवान से अमर होने का वरदान मांग लिया। भगवान ब्रह्मा को इस बात का एहसास था कि अगर ऐसा हो जाता है तो इस बात का परिणाम अच्छा नहीं होगा इसलिए उन्होंने राक्षस पुत्रों से कोई और वरदान मांगने के लिए कहा।  दूसरे वरदान के रूप में राक्षस पुत्रों ने ब्रह्मा जी से कहा कि अब आप हमारे लिए तीन अलग-अलग नगरों का निर्माण करा दीजिए और इन नगरों को ऐसा बनाइयेगा कि इसमें बैठकर हम सारी पृथ्वी पर आकाश मार्ग से घूमते रहे और फिर एक हज़ार साल बाद हम एक ही स्थान पर आकर मिलें।  जब हम नगर में आकर मिलें तो उस समय तीनों नगर मिलकर एक बन जाएं। इसके बाद जो कोई भी देवता एक ही बाण से उसे नष्ट कर पाए वही हमारी मौत का कारण बने उसके अलावा हमें और कोई ना मार पाए। 

अंततः ब्रह्मा जी ने राक्षस पुत्रों को ये वरदान दे दिया। वरदान पाकर तीनों बहुत खुश हुए। ब्रह्मा-जी के कहेनुसार उनके लिए तीन राज्यों का निर्माण कराया गया। उनमें से एक नगर सोने का था, एक चाँदी का और एक लोहा का। सोने का नगर तारकाक्ष का था, चाँदी का कमलाक्ष का और लोहे का विद्युन्माली का। अब तीनों राक्षस पुत्रों ने अपने पराक्रम से तीनों लोकों पर अधिकार भी प्राप्त कर लिया। इसके बाद तीनों राक्षस पुत्रों का तांडव शुरू हो गया। इन दैत्यों के इस हाहाकार से देव लोक में रहने वाले इंद्र और सभी देवता भगवान शंकर की शरण में आ गए और उन्होंने भगवान से विनती की कि उन्हें दैत्यों के उत्पात से बचाया जा सके।  तब घबराये देवताओं की रक्षा के लिए भगवान शिव ने त्रिपुरों का नाश करने की हामी भर दी। इसके बाद विश्वकर्मा ने भगवान शिव के लिए एक दिव्य रथ बनाया। 

इसमें क्रम के अनुसार चंद्रमा और सूर्य उस रथ के पहिये बने।  इंद्र, वरुण, यम और कुबेर आदि लोक-पाल उस रथ के घोड़े बन गए। इसके बाद हिमालय धनुष बने और शेषनाग उसकी प्रत्यंचा। खुद भगवान विष्णु बाण और अग्निदेव उसकी नोक बने। जब उस दिव्य रथ पर सवार होकर भगवान शिव त्रिपुरों का वध करने के लिए निकले तो दैत्यों में हाहाकर मच गया। इसके बाद देवताओं और दैत्यों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में जैसे ही त्रिपुर के तीनों नगर एक सीध में आए, भगवान शिव ने दिव्य बाण चलाया जिससे राक्षस पुत्रों का नाश हो गया। जैसे ही राक्षस पुत्रों का वध हुआ सभी देवता ख़ुशी से नाचने और भगवान शिव का गुणगान करने लगे। त्रिपुरों का अंत करने के कारण ही भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा।

भगवान विष्णु ने लिया था ‘मत्स्य’ अवतार

इसी दिन भगवान विष्णु ने भी लिया था ‘मत्स्य’ का रूप। भगवान विष्णु के पहला अवतार को ‘मत्स्य अवतार’ कहते  हैं जो कि एक मछली के रूप में है। अगर आप श्री-हरि के इस अवतार से जुड़ी पौराणिक कथाओं को पढ़ते हुए धार्मिक ग्रंथों में छपी प्रतीकात्मक तस्वीरें देखेंगे, तो आपको समझ आएगा कि असल में भगवान का यह अवतार अर्ध देव और अर्ध मछली का है। श्री-विष्णु ने मत्स्य अवतार क्यों लिया, इसके जवाब के तौर पर एक पौराणिक कथा है।  इस कथा के अनुसार, जब प्रलय काल में सृष्टि समाप्त होने लगी तब नई सृष्टि के निर्माण के लिए और उपयोगी बीजों की रक्षा करने के लिए भगवान ने मत्स्य अवतार लिया था।

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